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गांधी परिवार के लिए सिरदर्द ही रहे दक्षिण भारत से आए कांग्रेस अध्यक्ष, फिर खड़गे पर क्यों खेला दांव, समझिए

नई दिल्ली : कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव न हुआ जैसे कोई सस्पेंस थ्रिलर सिनेमा चल रहा हो। कुछ दिन पहले तक अशोक गहलोत को यह पद मिलना तय माना जा रहा था। फिर राजस्थान में बवंडर शुरू हुआ और आखिरकार वह रेस से बाहर हो गए। अब नामांकन के आखिरी दिन मल्लिकार्जुन खड़गे के पर्चा भर दिया। गहलोत से 'निराश' होने के बाद गांधी परिवार ने उन पर दांव खेला है। अब खड़गे और शशि थरूर में मुकाबला होगा। दोनों ही दक्षिण भारत से हैं। अगर इतिहास पर नजर डालें तो साउथ से आने वाले कांग्रेस अध्यक्ष पार्टी और खासकर गांधी परिवार के लिए सिरदर्द ही साबित हुए हैं। इसके बाद भी गांधी परिवार ने खड़गे पर दांव खेला है जो कर्नाटक से आते हैं। गांधी परिवार के वफादार खड़गे, अडिग रही है निष्ठा कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव के लिए अशोक गहलोत के पीछे हटने के बाद गांधी परिवार ने खड़गे पर भरोसा जताया तो इसके पीछे वजह भी हैं। उनकी गिनती परिवार के वफादारों में होती है। उसी वफादारी का इनाम है कि वह आजादी के बाद कांग्रेस के 11वें गैर-गांधी (नेहरू-गांधी परिवार से इतर) अध्यक्ष बनने की राह पर हैं। कर्नाटक की राजनीति से लेकर केंद्र की राजनीति तक उन्होंने छाप छोड़ी है। राज्य में मंत्री से लेकर केंद्र में मंत्री तक रहे। लोकसभा में विपक्ष के नेता रह चुके हैं। फिलहाल राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं। हालांकि, कई बार नाम उछलने के बाद भी वह कभी कर्नाटक के मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। वह दलित समुदाय से आने वाले मौजूदा दौर में कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2018 में कर्नाटक चुनाव से पहले एक चुनावी सभा में कांग्रेस पर यह आरोप लगाया था कि मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे नेताओं को पार्टी ने सिर्फ इसलिए मुख्यमंत्री नहीं बनाया क्योंकि वे दलित हैं। पीएम मोदी का बयान का मकसद विरोधी खेमे में फूट डालने के साथ-साथ खड़गे पर एक तरह से डोरा डालना भी था। लेकिन गांधी परिवार और कांग्रेस में उनकी निष्ठा अडिग रही। तब खड़गे ने खुद की 'पहचान सिर्फ दलित नेता तक सीमित' किए जाने पर नाराजगी जताई। चाहते तो कर्नाटक में कांग्रेस से मुख्यमंत्री रह चुके एसएम कृष्णा की तरह वह भी पाला बदल बीजेपी का हाथ थाम सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। खड़गे ने कभी गांधी परिवार से शिकायत भी नहीं की। कांग्रेस से कर्नाटक के उप मुख्यमंत्री रह चुके जी. परमेश्वर ने तो आलाकमान पर ये आरोप तक जड़ दिया था कि उन्हें तीन-तीन बार सीएम पोस्ट से सिर्फ इसलिए वंचित किया गया क्योंकि वह दलित समुदाय से हैं। साउथ से आने वाले कांग्रेस अध्यक्ष गांधी परिवार के लिए रहे हैं सिरदर्द 1947 में आजादी के बाद अबतक गांधी परिवार से बाहर के सिर्फ 10 नेता ही कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंच पाए हैं। इनमें से 5 दक्षिण भारत से हैं। ये हैं- पट्टाभि सीतारमैया (आंध्र प्रदेश), के. कामराज (तमिलनाडु), नीलम संजीव रेड्डी (आंध्र प्रदेश), एस. निजलिंगप्पा और पीवी नरसिम्हा राव। खास बात ये है कि इनमें से ज्यादातर ने नेहरू-गांधी परिवार के काफी करीबी रहे लेकिन अध्यक्ष के तौर पर अपने कार्यकाल में परिवार को नुकसान ही पहुंचाया है। संयोग से अध्यक्ष बनने से पहले तक इनमें से ज्यादातर कांग्रेस के 'प्रथम परिवार' के बेहद भरोसमंदों में शुमार थे। नीलम संजीव रेड्डी (1960-1963) 1948 से 1949 तक पट्टाभि सीतारमैया कांग्रेस अध्यक्ष रहे। वह दौर जवाहर लाल नेहरू का था जिनका देश की राजनीति में जबरदस्त दबदबा था। इस वजह से पट्टाभि और उनके बीच टकराव की कोई खास नौबत नहीं आई। उनके बाद 1960 में कांग्रेस की कमान फिर से दक्षिण भारत से आने वाले नेता के हाथ में गई। नीलम संजीव रेड्डी अध्यक्ष बने जो 1963 तक पद पर रहे। वह नेहरू-गांधी परिवार के करीबियों में थे लेकिन बाद में इंदिरा गांधी के लिए सिरदर्द बन गए। 1969 में तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन का निधन हो गया। पहली बार राष्ट्रपति के लिए मिड टर्म इलेक्शन कराने की नौबत आई। तब पार्टी में सक्रिय इंदिरा गांधी-विरोधी सिंडिकेट नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस का आधिकारिक उम्मीदवार घोषित करवाने में सफल रहा। तब इंदिरा गांधी के इशारे पर तत्कालीन उपराष्ट्रपति वीवी गिरि ने भी बतौर निर्दलीय ताल ठोक दी। इंदिरा ने सांसदों, विधायकों से अंतरात्मा की आवाज सुनने की अपील कर दी। फिर क्या था। कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार रेड्डी हार गए और 'निर्दलीय' गिरि राष्ट्रपति चुने गए। कामराज (1964-1967) नीलम संजीव रेड्डी के बाद 1964 में के. कामराज को कांग्रेस की कमान मिली जो तमिलनाडु से आते थे। वह 1967 तक पद पर रहे। ये वही कामराज थे जिनके दिए 'कामराज प्लान' की आज भी चर्चा होती है, जिसने एक दौर में कांग्रेस को मजबूत बनाने में खास भूमिका निभाई थी। उन्होंने राज्यों की सरकारों में शामिल कांग्रेस के बड़े नेताओं को इस्तीफा देकर संगठन में काम करने का प्लान दिया था। 1963 में इसी प्लान के तहत कामराज ने खुद तमिलनाडु के सीएम पद से इस्तीफा दिया जिसके बाद कई राज्यों में मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा था। खास बात ये है कि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में कामराज की बड़ी भूमिका थी लेकिन बाद में दोनों के रिश्तों में काफी खटास आ गई। यहां तक कि 1969 में हुए कांग्रेस के बंटवारे के भी वही मुख्य शिल्पी थे। तब कामराज और सिंडिकेट के बाकी नेताओं ने इंदिरा गांधी को ही कांग्रेस से बाहर कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि पार्टी टूट गई। सिंडिकेट के नियंत्रण वाला धड़ा कांग्रेस (ओ) हो गया और इंदिरा के नेतृत्व वाला धड़ा कांग्रेस (आर) के नाम से जाना गया। मौजूदा कांग्रेस वही है। पार्टी में बंटवारे के बाद 1971 में लोकसभा चुनाव के साथ-साथ तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव भी थे। कामराज कांग्रेस (ओ) की तरफ से सीएम पद के दावेदार थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने डीएमके के एम. करुणानिधि के साथ मिलकर खेल कर दिया। उनकी कांग्रेस (आई) ने डीएमके के साथ गठबंधन कर लिया। विधानसभा चुनाव में पार्टी उतरी ही नहीं। लोकसभा चुनाव के लिए डीएमके के साथ सीट शेयरिंग समझौता किया। नतीजा ये हुआ कि कामराज का दोबारा मुख्यमंत्री बनने के सपनों पर पानी फिर गया। हालांकि, उसके बाद तमिलनाडु में कांग्रेस भी हाशिए पर चली गई। एस. निजालिंगप्पा (1968-1969) कामराज के बाद 1968 में सिद्दावनल्ली निजालिंगप्पा के रूप में कांग्रेस को फिर दक्षिण भारत से अध्यक्ष मिला। वह 1969 तक पद पर रहे। वह पेशे से वकील थे और कर्नाटक के एकीकरण में उन्होंने अहम भूमिका निभाई थी। निजालिंगप्पा कर्नाटक के पहले मुख्यमंत्री भी बने। 1969 में जब कांग्रेस का बंटवारा हुआ तब वह भी इंदिरा गुट के खिलाफ सिंडिकेट में शामिल थे। पीवी नरसिम्हा राव (1992-1996) निजालिंगप्पा के बाद 1992 में भी कांग्रेस को दक्षिण भारत से अध्यक्ष मिला। प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के रूप में। राव और सोनिया गांधी के रिश्ते बहुत तनावपूर्ण रहे। इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि जब दिसंबर 2004 में राव का निधन हुआ तब न तो उनके पार्थिव शरीर को आम लोगों के दर्शनार्थ दिल्ली के कांग्रेस मुख्यालय में रखा गया और न ही राष्ट्रीय राजधानी में उनका अंतिम संस्कार ही हुआ। जबकि उनका निधन दिल्ली में ही हुआ था। तब केंद्र में कांग्रेस की अगुआई में यूपीए-1 की सरकार थी। सोनिया गांधी यूपीए के साथ-साथ कांग्रेस की अध्यक्ष थीं।


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