न सड़न न बदबू, लाशों को सैकड़ों साल तक कैसे रखा जाता है 'जिंदा', कानपुर ने मिस्र की याद दिला दी
नई दिल्ली: कानपुर में हाल में हैरान करने वाली घटना हुई। एक परिवार यहां डेढ़ साल तक लाश के साथ रहा। लाश न सड़ी, न उसमें बदबू आई। इन डेढ़ सालों में लाश के दांत वगैरह भी बिल्कुल सही-सलामत रहे। यह शव विमलेश नाम के व्यक्ति का था। कोरोना की दूसरी लहर में उनकी मौत हो गई थी। 22 अप्रैल 2021 से परिवार शव के साथ रह रहा था। यह लाश करीब-करीब ममी बन चुकी थी। हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति जिले में भी ऐसा ही चौंकाने वाला रहस्य मिलता है। जिले में ग्यू नाम का एक गांव है। यहां 500 साल से ज्यादा पुरानी ममी है। यह बौद्ध भिक्षु सांघा टेनजिन (Sangha Tenzin) की है। दूर-दूर से लोग इसे देखने आते हैं। बात जब ममी की आती है तो मिस्र (Egypt Mummy) का जिक्र अपने आप आ जाता है। मिस्र के पिरामिड में दफन हमेशा ही कौतूहल का विषय रही है। मिस्र की ममी दुनियाभर में विश्व विख्यात हैं। कई महान राजाओं और गुरुओं की लाशों को पिरामिड में दफनाया जाता था। इनकी ममियों से कई रहस्य जुड़े हैं। दावा किया जाता है कि इन पिरामिडों के पास आज भी कई ममियां घूमती हैं। हालांकि, आज हम मिस्र नहीं भारत में ममीफिकेशन (Mummification) की बात करेंगे। क्या होता है ममीफिकेशन? ममीफिकेशन एक तरह की कला है। इसमें मरने के बाद शव को प्रिसर्व करके रखा जाता है। यह एक जटिल काम है। इसमें शव पर केमिकल या नैचुरल प्रिजर्वेटिव्ज लगाए जाते हैं। इसका मकसद होता है कि लाश सड़े-गले नहीं। 12वीं सदी से ऐसा करने की प्रथा रही है। हालांकि, इसकी मनाही है। कहा जाता है कि किसी जमाने में ममीफिकेशन एक कारोबार हुआ करता था। पुरानी ममियों में अक्सर मुंह को खुला छोड़ दिया जाता था। शव के ममीफिकेशन के लिए इसमें नमी नहीं आने दी जाती है। इसके लिए लगातार निगरानी करनी पड़ती है। कानपुर का परिवार क्यों घर लाया शव? ममी की बात अचानक इसलिए होने लगी है क्योंकि हाल में कानपुर में एक परिवार ने कुछ अजीबो-गरीब किया। रावतपुर के कृष्णापुरी इलाके में विमलेश सोनकर की 22 अप्रैल 2021 को मौत हो गई थी। अस्पताल ने डेथ सर्टिफिकेट तक जारी कर दिया था। यह और बात है कि परिवार इस बात पर यकीन नहीं कर रहा था कि विमलेश दुनिया में नहीं रहा। दिलचस्प यह है कि इस परिवार में 10 सदस्य हैं। लेकिन, किसी ने इसकी भनक तक नहीं होने दी। पर्दा तब हटा जब ड्यूटी पर नहीं पहुंचने के कारण आयकर विभाग की टीम विमलेश की तलाश में घर पहुंच गई। विमलेश आयकर अधिकारी थे। कमरे में विमलेश की ममी जैसी बन चुकी लाश मिली। 23 अप्रैल को परिवार के लोग विमलेश का अंतिम संस्कार करने जा रहे थे। कोरोना का समय था तो परिवार के लोग ही इसमें शामिल थे। उन्हें विमलेश के शरीर में कुछ हरकत महसूस हुई। उन्होंने हाथ में ऑक्सीमीटर लगाया तो यह पल्स रेट और ऑक्सिजन लेवल बताने लगा। इस पर परिवार ने अंतिम संस्कार टाल दिया। वह शव को वापस ले आया। कैसे न खराब हुई लाश न आई बदबू? विमलेश को जिंदा मानकर पूरा परिवार शव की सेवा में जुट गया। सुबह-शाम शव की डेटॉल से सफाई की जाती। तेल-मालिश होती। रोजाना कपड़े और बिस्तर को बदला जाता। जिस कमरे में शव को रखा गया उसका एसी 24 घंटे ऑन रहता। यही कारण था कि लाश से न बदबू आई न वह सड़ी-गली। अलबत्ता, वह एक ममी में बदलने लगी। हिमाचल में 500 साल पुरानी ममी 1975 में भूकंप के बाद एक बौद्ध भिक्षु की ममीफाइड बॉडी मिली थी। 2004 में इस जगह की खुदाई हुई थी। इसने तभी पुरात्व के लोगों और टैवलर्स की दिलचस्पी यहां बढ़ा दी थी। हिमाचल के लाहौल-स्पीति में यह ममी सांघा टेनजिन की है। यह 500 साल पुरानी बताई जाती है। इसमें दांतों को भी नुकसान नहीं हुआ है। खास बात यह है कि बौद्ध भिक्षु का ममीफिकेशन मिस्र से बिल्कुल अलग है। इसे नैचुरल सेल्फ-ममीफिकेशन का नतीजा बताया जाता है। इस प्रक्रिया को 'सोकुशिनबुत्सु' बताया जाता है। यह पद्धति जापान के बौद्ध भिक्षुओं से आई है। इसमें करीब 10 साल तक का समय लगता है। इस तरीके में धीरे-धीरे भिक्षु भूख-प्यास से मरने की तरफ बढ़ते हैं। इसके लिए वे जहरीली जड़ी-बूटियों का सेवन करते हैं। इस तरह भिक्षु बैठी हुई मुद्रा में अपना जीवन समाप्त कर पाते हैं। उनके शरीर में थोड़ी भी नमी नहीं रहती है। लेकिन, सभी जरूरी अंग सुरक्षित रहते हैं। सांघा टेनजिन की ममी आज भी मंदिर में बैठने की मुद्रा में सुरक्षित है। उनका मुंह खुला हुआ है। उनके दांतों को देखा जा सकता है।
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